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सैर उस सब्ज़ा-ए-आरिज़ की है दुश्वार बहुत - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

सैर उस सब्ज़ा-ए-आरिज़ की है दुश्वार बहुत

सैर उस सब्ज़ा-ए-आरिज़ की है दुश्वार बहुत

ऐ दिल-ए-आबला-पा राह में हैं ख़ार बहुत

लो न लो दिल मुझे भाती नहीं तकरार बहुत

मुफ़्त बिकता है मिरा माल ख़रीदार बहुत

ख़ुश रहो यार अगर हम से हो बेज़ार बहुत

दिल अगर अपना सलामत है तो दिलदार बहुत

ग़म नहीं गो हम अकेले हैं और अग़्यार बहुत

हक़ अगर अपनी तरफ़ है तो तरफ़-दार बहुत

पाँव फैलाओ न अब तो मिरे पास आने में

एड़ियाँ तुम ने रगड़वाई हैं ऐ यार बहुत

क्या करूँगा मैं भला बाग़ इजारे ले कर

आशियानों को हैं इक मुश्त-ए-ख़स-ओ-ख़ार बहुत

ता'न रिंदों पे न कर शैख़ ख़ुदा-लगती बोल

उस के अल्ताफ़ बहुत हैं कि गुनहगार बहुत

क्या ज़माने में मोहब्बत का मरज़ फैला है

अच्छे दो-चार नज़र आते हैं बीमार बहुत

लम्बे लम्बे तिरे बालों का मुझे सौदा है

तूल खींचेगा मिरी जान ये आज़ार बहुत

तल्ख़ी-ए-मर्ग का हरगिज़ मुझे अंदेशा नहीं

बैठी मुँह पर है मिरे यार की तलवार बहुत

बस तुम्हारी यही ख़ू सख़्त बुरी लगती है

थोड़ी तक़्सीर पे हो जाते हो बेज़ार बहुत

घर में उस बुत के रसाई न हुई पर न हुई

'बहर' ने पुतली भी गाड़ी पस-ए-दीवार बहुत

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