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क़द्र-दाँ कोई न असफ़ल है न आ'ला अपना - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

क़द्र-दाँ कोई न असफ़ल है न आ'ला अपना

क़द्र-दाँ कोई न असफ़ल है न आ'ला अपना

न ज़मीन पर न फ़लक पर है ठिकाना अपना

दस्त-ए-शफ़क़त से दिया आप ने छल्ला अपना

हाथ भर बढ़ गया सीने में कलेजा अपना

आए मस्ती के दिन अय्याम-ए-बहारी आए

शेर की तरह लगा गूँजने सहरा अपना

न भरा जाम न साक़ी ने कभी याद किया

ताक़-ए-निस्याँ पे धरा रहता है मीना अपना

देखते भी वो नहीं आँख उठा कर हम को

साद होता नहीं सरकार में चेहरा अपना

किस के हाथों हदफ़-ए-तीर-ए-बला हम न हुए

दिल है मानिंद-ए-कमाँ सब से कशीदा अपना

दिल-जले दूद-ए-परेशाँ की तरह हैं बर्बाद

हम कहीं ठहरें तो बतलाएँ ठिकाना अपना

कौन मुश्ताक़ है हम दाग़ दिखाएँ किस को

देखें ख़ुद सूरत-ए-ताऊस तमाशा अपना

शर्म बंदे की तिरे हाथ है ऐ रब्ब-ए-करीम

न खुले ख़ाक के पर्दे में भी पर्दा अपना

हम को जो रंज पहुँचते हैं वो किस से कहिए

हम को मेहमान समझती नहीं दुनिया अपना

ज़िंदगी चाहिए जंगल में भी कुछ ख़ौफ़ नहीं

ऐ जुनूँ शेर का आख़िर कभी घर था अपना

तुर्फ़ा ख़ुश्की-ओ-तरी की है हमें सैर ऐ 'बहर'

दश्त है अपना ग़ुबार अश्क है दरिया अपना

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