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नफ़्स-ए-सरकश को क़त्ल कर ऐ दिल - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

नफ़्स-ए-सरकश को क़त्ल कर ऐ दिल

नफ़्स-ए-सरकश को क़त्ल कर ऐ दिल

मुस्तइद हो जिहाद पर ऐ दिल

न फलेगी तिजारत-ए-दुनिया

है यहाँ नफ़अ' में ज़रर ऐ दिल

तेरे किरदार पर हैं शाहिद-ए-हाल

ख़ुश्क-लब और चश्म-ए-तर ऐ दिल

न रो उल्फ़त न हाथ से जाए

खेल जा अपनी जान पर ऐ दिल

चाहिए बे-महल न टपके अश्क

अब्रूओं पर रहे नज़र ऐ दिल

बे-ख़ुदी में निकल चला है किधर

भूल जाना न अपना घर ऐ दिल

कू-ए-जानाँ है मक़्तल-ए-उश्शाक़

ले चला है मुझे किधर ऐ दिल

जान जानी है तुझ को होश नहीं

तू भी कितना है बे-ख़बर ऐ दिल

इश्क़-बाज़ी है आबरू-रेज़ी

अपने फ़े'लों से दरगुज़र ऐ दिल

क्यूँ निकल कर ज़लील होती है

तेरी फ़रियाद-ए-बे-असर ऐ दिल

ध्यान आठों-पहर उसी का है

कभी अपनी भी ली ख़बर ऐ दिल

इश्क़ के मा'रके में मार क़दम

फ़त्ह है तेरे नाम पर ऐ दिल

अश्क हो कर बहा कि ख़ून हुआ

क्या हुई हालत-ए-जिगर ऐ दिल

ग़म-ए-आलम है तेरे हिस्से में

तू भी क्या है नसीब-वर ऐ दिल

तू अगर आग है वो पानी है

'बहर' के शर से ख़ौफ़ कर ऐ दिल

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