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मेरे आगे तज़्किरा माशूक़-ओ-आशिक़ का बुरा - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

मेरे आगे तज़्किरा माशूक़-ओ-आशिक़ का बुरा

मेरे आगे तज़्किरा माशूक़-ओ-आशिक़ का बुरा

अगली बातें मुझ को याद आती हैं ये चर्चा बुरा

ना-गहानी थी जो मैं आशिक़ हुआ रुस्वा हुआ

चाहता है कोई दुनिया में भला अपना बुरा

है यही सूरत तो हम से राज़-पोशी हो चुकी

चश्म तर लब ख़ुश्क चेहरा ज़र्द ये नक़्शा बुरा

हम ग़रीबों से न पूछो ने'मत-ए-दुनिया का हाल

शुक्र कर के खा लिया जो कुछ मिला अच्छा बुरा

एक बोसे पर भी मेरा दिल न साहब ने लिया

इतनी क़ीमत पर तो अच्छा था न इतना था बुरा

कर गुज़रिए मेरे हक़ में आप जो मंज़ूर हो

आए दिन का मा'रका हर रोज़ का झगड़ा बुरा

आदमी होता है सरगर्दां बगूले की तरह

आँधियाँ अच्छी हवा-ओ-हिर्स का झोंका बुरा

आए जब वा'दे के शब मेहंदी लगा बैठा वो शोख़

दूसरी रात इस्तिख़ारा आने को आया बुरा

बन के उड़ नागन मोअज़्ज़िन को डसे ज़ुल्फ़-ए-सनम

वस्ल की शब को अज़ान-ए-सुब्ह का खटका बुरा

आँख से देखोगी वो कुछ आबरू को रोओगी

झाँक-ताक अच्छी नहीं ऐ 'बहर' ये लपका बुरा

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