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महरम के सितारे टूटते हैं - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

महरम के सितारे टूटते हैं

महरम के सितारे टूटते हैं

पिस्तान के अनार छूटते हैं

दिल पर है वो सदमा-ए-जुदाई

घड़ियाल भी सीना कूटते हैं

कोई तो मता-ए-दिल को पूछे

आबाद रहें जा लूटते हैं

आँखों को बहाएगा ये रोना

दरिया में चराग़ छूटते हैं

तय किस से हो वादी-ए-मोहब्बत

चलते हुए पाँव टूटते हैं

किस के गालों से हमसरी किए

सोने के वरक़ को कूटते हैं

ये दिल उसे मुफ़्त भी है महँगा

हम ख़ुश हैं की सस्ते छूटते हैं

रिंदों ने दिया जो साना अपना

साक़ी की दुकान लूटते हैं

किया शिकोह-ए-संग को दुकान-ए-'बहर'

हम पर तो पहाड़ टूटते हैं

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