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महबूब-ए-ख़ुदा ने तुझे नायाब बनाया - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

महबूब-ए-ख़ुदा ने तुझे नायाब बनाया

महबूब-ए-ख़ुदा ने तुझे नायाब बनाया

क़द सर्व किया रुख़ गुल-ए-महताब बनाया

जब कुछ न बनी इश्क़ ने बेताब बनाया

ख़ुद बन गया शो'ला मुझे सीमाब बनाया

उस हुस्न के दरिया ने जो फिर कर मुझे देखा

मौज-ए-क़दम-ए-नाज़ को गिर्दाब बनाया

सरमस्त-ए-शहादत हैं तिरे इश्क़ में साक़ी

आब-ए-दम-ए-ख़ंजर को मय-ए-नाब बनाया

आगाह किया इश्क़ ने क़ानून-ए-वफ़ा से

जब नाख़ुन-ए-शमशीर को मिज़राब बनाया

सब उ'ज़्व-ए-बदन शम-ए-सिफ़त बह गए गल कर

इस सोज़िश-ए-दिल ने मुझे सैलाब बनाया

इक रात उड़ाई न मिरी दुख़्तर-ए-रज़ से

साक़ी ने बत-ए-मय को भी सुरख़ाब बनाया

जिस्म ऐसा दमकता है कि कपड़े चमक उट्ठे

नैनो को तिरे हुस्न ने कमख़ाब बनाया

कब तालिब-ए-राहत हुए ज़ख़्मी-ए-मोहब्बत

मरहम की जो हाजत हुई तेज़ाब बनाया

आरिज़ ने किया सर-ब-ज़मीं सारे गुलों को

क़ामत ने हर इक शाख़ को मेहराब बनिया

ऐ 'बहर' बर-ओ-बहर में गर्दिश रहे हम को

क़िस्मत ने बगूला तुझे गिर्दाब बनाया

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