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ख़ुर्शीद-रुख़ों का सामना है - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

ख़ुर्शीद-रुख़ों का सामना है

ख़ुर्शीद-रुख़ों का सामना है

शबनम-सिफ़त आबरू हवा है

दिल ज़ख़्मी-ए-इश्क़ है सज़ा है

भर दूँ जो नमक तो फिर मज़ा है

अब तो दिल उस पर आ गया है

अच्छा है बुरा है या भला है

बैनुल-आद में आदमी है

दुनिया एक बीच की सिरा है

ऐसी है मलाहत उस के मुँह पर

रुख़्सार का सब्ज़ा लो नया है

इक्सीर है दिल की ख़ाकसारी

कुश्ता हो जो नफ़स-ए-कीमिया है

मुनइ'म न कर ए'तिबार-ए-दौलत

इक़बाल का क़ल्ब ला-बक़ा है

वो दिल न रहा जा नाज़ उठाऊँ

मैं भी हूँ ख़फ़ा जो वो ख़फ़ा है

कम है जो सितम हो तुझ पर ऐ दिल

बे-रहम से और मिल सज़ा है

दिल तुम को तो फिर किसी दिन

प्यार कोई तुम से भी सिवा है

अच्छी नहीं ये ख़लिश रक़ीबो

काँटे बो कर कोई फला है

हम देखें मज़े रक़ीब लूटे

यूँ उस से भी तो क्या मज़ा है

दम सीने से क्यूँ नहीं निकलता

क्या जिस्म-ए-नज़ार ख़ार-ए-पा है

दौलत से कभी न सेर होंगे

शाहों को फ़क़ीर की दुआ है

छुपता नहीं कोई अपने दिल में

आँखों में वही खटक रहा है

इस रंज में भी निबाह देंगे

अपना अभी इतना हौसला है

ऐ 'बहर' ग़ज़ल कही जो तुम ने

ये तर्ज़-ए-कलाम 'मीर' का है

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