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ख़ूब-रू सब हैं मगर हूरा-शमाइल एक है - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

ख़ूब-रू सब हैं मगर हूरा-शमाइल एक है

ख़ूब-रू सब हैं मगर हूरा-शमाइल एक है

और मह-पारा हैं लेकिन माह-ए-कामिल एक है

हक़-तआ'ला उस के ज़ुल्फ़ों से बचाए अल-हज़र

सामना है दो बलाओं का मिरा दिल एक है

कौन सा राहत-रसाँ मा'शूक़ है आफ़ाक़ में

दूसरा भी आफ़त-ए-जाँ है जो क़ातिल एक है

मैं तड़पता हूँ तो कहते हैं असीरान-ए-क़फ़स

ज़ख़्म-ख़ुर्दा हम गिरफ़्तारों में बिस्मिल एक है

जिस का जी चाहा चला आया बग़ैर अज़ इत्तिलाअ'

आप की सरकार में बाज़ार-ओ-महफ़िल एक है

शम्अ' चलती है तो परवाने भी जल जाते हैं साथ

वाह क्या इन आशिक़-ओ-माशूक़ का दिल एक है

रिंद-ओ-ज़ाहिद दोनों पूछेंगे बराबर देखना

तफ़रक़े उन में दोराहे तक है मंज़िल एक है

उस की ज़ुल्फ़ों का तसव्वुर है जो हर दम दिल-नशीं

मैं समझता हूँ कि दो लैला हैं महमिल एक है

जो मुआर्रिफ़ कामिलों के थी अगर होती वो आज

हम को भी कहते ये अपनी फ़न में कामिल एक है

'बहर' अपनी भी फ़साहत जानते हैं अहल-ए-फ़हम

दूसरे हम हैं अगर सहबान-ओ-इल एक है

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