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जिस को चाहो तुम उस को भर दो - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

जिस को चाहो तुम उस को भर दो

जिस को चाहो तुम उस को भर दो

माह को नुक़रा मेहर को ज़र दो

पीर-ए-मुग़ाँ से अर्ज़ ये कर दो

दक्खिन बख़्शो अगर साग़र दो

आह ये दोनों आफ़त-ए-जाँ हैं

नाज़-ओ-अदा ला'नत बर हर दो

जी जलता है आह के झोंको

शम-ए-मोहब्बत को गुल कर दो

क़तरा-फ़िशानी क्या ऐ आँखो

ऐसे बरसो जल-थल भर दो

बुलबुलो सय्याद आज ख़फ़ा है

हल्क़ छुरी के नीचे धर दो

जान उन आँखों से न बचेगी

ये है इधर तन्हा वो उधर दो

दम की आमद-ओ-शुद क्या कहिए

ज़ोफ़ की राह से हैं ये सफ़र दो

अपना गला ख़ुद काटते हैं हम

दम लो छुरी की तले बे-दर्दो

जान-ओ-माल फ़िदा करने में

फ़िक्र-ओ-तरद्दुद ऐ ना-मर्दो

अर्ज़ ये है नक़्काश-ए-अज़ल से

हुब के नक़्श में यार को घर दो

दौलत-ए-दिल तुम तो हाज़िर है

ख़त्त-ए-एज़ार तमस्सुक कर दो

शुक्र-गुज़ार ब-हर-सूरत हैं

ज़हर हमें दो या शक्कर दो

आँखों में है मवाद-ए-गिरया

'बहर' इन फोड़ों को नश्तर दो

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