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ईफ़ा-ए-व'अदा आप से ऐ यार हो चुका - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

ईफ़ा-ए-व'अदा आप से ऐ यार हो चुका

ईफ़ा-ए-व'अदा आप से ऐ यार हो चुका

उस का तो इम्तिहान कई बार हो चुका

अहबाब हाथ उठाएँ हमारे इलाज से

सेहत-पज़ीर इश्क़ का बीमार हो चुका

वो बे-हिसाब बख़्श दे ये बात और है

अपने हिसाब में तो गुनहगार हो चुका

मैं हाथ जोड़ता हूँ बड़ी देर से हुज़ूर

लग जाइए गले से अब इंकार हो चुका

बेचूँ कहाँ मैं अपने दिल-ए-दाग़-दार को

सौदा बुरा पसंद ख़रीदार हो चुका

पीरी में परवरिश है अबस जिस्म-ए-ज़ार की

फेंकूँ किसी घड़ी मैं ये बेकार हो चुका

बरहम वो शोख़ क्यूँ न हो क्यूँ ज़ुल्फ़ को छुआ

ये हाथ हथकड़ी के सज़ा-वार हो चुका

अब मुझ से इल्तियाम की बातें न कीजिए

दिल तुम से फट गया जिगर अफ़गार हो चुका

मुझ दिल-फ़िगार को न रही तुम से कुछ उमीद

ये ख़त्त-ए-सब्ज़ मरहम-ए-ज़ंगार हो चुका

दरबान को सलाम करें घर की राह लें

वो मुँह छुपा के बैठे हैं दीदार हो चुका

बंदे के हाल पर नज़र-परवरिश रहे

हुस्न-ए-मलीह का मैं नमक-ख़्वार हो चुका

लूँ बोसा ख़ूँ-बहा मैं उस अबरू-कमान से

अब तो जिगर से तीर-ए-निगह पार हो चुका

ऐ 'बहर' अब तो बात भी करता नहीं वो शोख़

वो रस्म-ओ-राह हो चुकी वो प्यार हो चुका

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