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हम आज-कल हैं नामा-नवीसी की ताव पर - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

हम आज-कल हैं नामा-नवीसी की ताव पर

हम आज-कल हैं नामा-नवीसी की ताव पर

दिन-भर कबूतरों को भगाते हैं बाव पर

रिंदों को एक रोज़ तो दरिया-दिली दिखा

कश्ती-ए-मय को छोड़ दे साक़ी बहाओ पर

लिक्खूँ वो शे'र-ए-आरिज़-ए-रंगीं की वस्फ़-बीं

तख़्ता चमन का सदक़े हों काग़ज़ की नाव पर

कुछ हाजत-ए-कबाब नहीं कैफ़-ए-इश्क़ में

सीख़ें दिल-ओ-जिगर की लगीं हैं अलाव पर

बे-मिन्नत-ए-जहान-ए-तुनुक-ज़र्फ़ अगर मिले

वल्लाह फिर तो चर्ब है ख़ुशका पुलाव पर

क़ाने की मुँह से ने'मत-ए-दुनिया ख़फ़ीफ़ है

भारी है पाव नान पर मिरी नान पाव पर

आफ़त-निशाँ हैं दीदा-ए-फ़त्ताँ की पुतलियाँ

तश्हीर सामरी को करेंगे ये गाव पर

बाज़ीचा-गाह-ए-इश्क़ में वो हूँ क़िमार-बाज़

दोनों जहान रख दिए हैं एक दाव पर

क्यूँ कर बरातियों से न घूँघट करे दुल्हन

सारी सभा मिटी है तुम्हारे बनाव पर

गुल-गश्त की हवस चमनिस्ताँ की आरज़ू

ऐ बे-क़रारियो मिरे दिल को लगाव पर

करता हूँ मैं जो मरहम-ए-काफ़ूर की तलाश

करती है चाँदनी मिरी सीने के घाव पर

कश्ती-ए-मय लगी रही साक़ी लबों के घाट

हम मय-कशों का क़ाफ़िला है चल-चलाव पर

मैं जल में आ गया वो न आया फ़रेब में

मैं ज़द पे चढ़ गया वो न ठेरा लगाव पर

परवाने की तरह न बुझा दे चराग़-ए-हुस्न

तूती-ए-ख़त के आतिश-ए-रुख़ से जलाओ पर

इल्म-ए-सफ़ीना उस को तुझे इल्म-ए-सीना 'बहर'

तू पुल पर और शैख़ है काग़ज़ की नाव पर

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