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दाग़ बैआ'ना हुस्न का न हुआ - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

दाग़ बैआ'ना हुस्न का न हुआ

दाग़ बैआ'ना हुस्न का न हुआ

खोटे दामों मोआ'मला न हुआ

दिल मुकद्दर रहा सफ़ा न हुआ

फ़ैज़ आईना-रूओं का न हुआ

कुछ न काम आए दाग़ की बूटी

क़ल्ब ताँबा रहा तिला न हुआ

दर्द-मंदान-ए-ख़ाल कहते हैं

गोलियाँ खाईं फ़ाएदा न हुआ

दिल ख़यालों से पाएमाल रहा

सब्ज़ा-ए-रह-गुज़र हरा न हुआ

आए फ़स्ल-ए-चमन कि ईद आए

ग़ुंचे चटके कि शादियाना हुआ

हर किसी ज़ुल्फ़ में रहा उलझा

दाम-ए-उल्फ़त से दिल रिहा न हुआ

न खटकते किसी के आँखों में

ये ग़ुबार अपना तूतिया न हुआ

मेरे आगे वो बैठे ग़ैर के पास

पास मेरा उन्हें ज़रा न हुआ

दिल ने ऐसे उठाए रंज-ओ-तअब

फिर मोहब्बत का हौसला न हुआ

जब किसी की नज़र पड़े रुख़ पर

ख़ाल-ए-मुश्कीं सियाह दाना हुआ

देखी कैफ़िय्यत-ए-बहार-ओ-ख़िज़ाँ

मैं दो-रंगी से आश्ना न हुआ

दिल शगुफ़्ता हुआ न फूलों से

कोई काँटा गिरह-कुशा न हुआ

घर बना कर यहाँ ये तंग आया

उक़्दा-ए-ख़ातिर आशियाना हुआ

रश्क का है मआल बे-रंगी

सब्ज़ा पिस कर कभी हिना न हुआ

'बहर' दिल सोच कर उसे देना

ख़ुद-ग़रज़ आश्ना हुआ न हुआ

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