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चार दिन है ये जवानी न बहुत जोश में आ - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

चार दिन है ये जवानी न बहुत जोश में आ

चार दिन है ये जवानी न बहुत जोश में आ

ऐ बुत-ए-मस्त-ए-मय-हुस्न ज़रा होश में आ

दिल ये कहता है जो वो शम-ए-एज़ार आ निकले

बन के फ़ानूस पुकारूँ मिरे आग़ोश में आ

क़दम-ए-यार का आवाज़ा हर इक गुल पर है

अम्न चाहे जो ख़िज़ाँ से मिरी पा-पोश में आ

मेरे शे'रों के जो मुश्ताक़ हैं फ़रमाते हैं

दुर-ए-मज़मूँ सदफ़-ए-लब से निकल गोश में आ

बे-क़रार ऐसे सितारे दुर-ए-ग़लताँ हो जाएँ

आप झमकी से जो फ़रमाएँ नया गोश में आ

पीर हूँ बोझ मोहब्बत का उठाऊँ क्यूँकर

फिर जवानी को पुकारों कि बरू दोश में आ

बसर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ रूह तू ही ही ऐ रूह

जल्द शीशे से निकल जिस्म-ए-क़दह-ए-नोश में आ

बैठ कर यार के पहलू में जो उठता हूँ कभी

पा-ए-ख़्वाबीदा ये कहता है मुझे होश में आ

रोज़-ए-बद एक न इक दिन तुझे नंगिया लेगा

ऐ ज़री-पोश हम अहबाब-ए-नमद-पोश में आ

दाग़ हो जाएगा ये ताज ज़री का ऐ शम्अ'

जी जलाने को न ख़ूबान-ए-ज़री-पोश में आ

ने'मत-ए-ग़ैब से कहती है मुहव्विस की हवा

उड़ के जौहर की तरह देग से सर-पोश में आ

दाग़ हैं एक के पर काले भड़क उठेंगे

देख ओ फ़स्ल-ए-बहारी न बहुत जोश में आ

नक़्ल-ए-महफ़िल नज़र आता नहीं कोई हम में

शैख़ मस्जिद से निकल बज़्म-ए-नै-ओ-नोश में आ

वस्ल में फ़स्ल न बाक़ी रहे ऐ जान-ए-जहाँ

जैसे पहलू में है दिल यूँ मिरे आग़ोश में आ

हाथ आएगा मुक़र्रर वो ग़ज़ाल-ए-वहशी

'बहर' चरती है कहाँ अक़्ल ज़रा होश में आ

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