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बुतो ख़ुदा पे न रक्खो मोआ'मला दिल का - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

बुतो ख़ुदा पे न रक्खो मोआ'मला दिल का

बुतो ख़ुदा पे न रक्खो मोआ'मला दिल का

बुरा-भला यहीं हो जाए फ़ैसला दिल का

बुतों से है मुतअल्लिक़ मोआमला दिल का

ख़ुदा है हश्र में भी हो जो फ़ैसला दिल का

चलो बला से अगर है ये आस्तीन का साँप

बग़ल में पाल के मैं क्या करूँ गिला दिल का

ख़याल-ए-ज़ुल्फ़ में सीने पे साँप लोटते हैं

दहान-ए-मार का छाला है आबला दिल का

सुनूँ तुम्हारी कि अपनी कहूँ हक़ीक़त-ए-हाल

तुम्हें है मेरी शिकायत मुझे गिला दिल का

ख़ुदा ये नाला-ओ-फ़रियाद साज़-वार करे

कि दिल-लगी है हमारी ये मश्ग़ला दिल का

भटक के कोई गया दैर को कोई का'बे

अजीब भूल-भुलय्याँ है मरहला दिल का

मैं इश्क़-ए-क़द में अलिफ़ खींच कर हुआ हूँ फ़क़ीर

मैं ज़ुल्फ़-ए-यार से रखता हूँ सिलसिला दिल का

किसी के ज़ुल्फ़ ने बरहम किए हैं होश-ओ-हवास

लुटा है शाम के रस्ते में क़ाफ़िला दिल का

ख़िज़ाँ-रसीदों को बाग़-ओ-बहार से क्या काम

न अब वो जोश-ए-तबीअ'त न वलवला दिल का

ज़माना और है औबाशियों का वक़्त नहीं

न वो मिज़ाज हमारा न हौसला दिल का

ये किस सनम की मोहब्बत में मर्तबा पाया

हुआ जो अर्श-ए-ख़ुदा से मुक़ाबला दिल का

कमाल यार के हाथों जला हूँ में ऐ 'बहर'

हथेली का है फफोला ये आबला दिल का

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