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बोलिए करता हूँ मिन्नत आप की - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

बोलिए करता हूँ मिन्नत आप की

बोलिए करता हूँ मिन्नत आप की

क्यूँ मुकद्दर है तबीअ'त आप की

फूंके देती है कलेजा सीने में

शो'ला बन बन कर मोहब्बत आप की

इतनी बे-परवाइयाँ अच्छी नहीं

लोग करते हैं शिकायत आप की

चाँदनी मुँह पर न पड़ने दीजिए

मैली हो जाएगी रंगत आप की

एक दिल रखते थे वो भी खो चुके

हो गए मुफ़लिस बदौलत आप की

दाग़ हम को ख़ाल साहब को मिला

ये नसीब अपना वो क़िस्मत आप की

मर के फिर ज़िंदा हुए समझेंगे हम

झेल जाएँगे जो फ़ुर्क़त आप की

मुँह लगा कर फिर न हरगिज़ पूछना

वाह क्या अच्छी है आदत आप की

हूरें जन्नत से तो परियाँ क़ाफ़ से

देखने आती हैं सूरत आप की

मेरी सूरत से अगर नफ़रत नहीं

क्यूँ बदल जाती है रंगत आप की

एक बोसे पर हज़ारों हुज्जतें

मानिए क्यूँ कर सख़ावत आप की

सुन के मतलब साफ़ आँखें फेर लीं

देख ली हम ने मुरव्वत आप की

फूल की जा पंखुड़ी ऐ बाग़-ए-हुस्न

दाग़-ए-दिल पर है इनायत आप की

हर किसी के सामने रोते हो 'बहर'

बह गई आँखों से ग़ैरत आप की

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