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ऐसे पुर-नूर-ओ-ज़िया यार के रुख़्सारे हैं - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

ऐसे पुर-नूर-ओ-ज़िया यार के रुख़्सारे हैं

ऐसे पुर-नूर-ओ-ज़िया यार के रुख़्सारे हैं

जिन के आगे मह-ओ-ख़ुर्शीद भी दो तारे हैं

कोई उन आँखों से उस सब्ज़ा-ए-ख़त को पूछे

ये वो काँटे हैं कि पलकों से सिवा प्यारे हैं

कोई सब्क़त न कभी ख़ाल से जितने हो बचो

साँप गेसू-ए-सियह-फ़ाम से मन हारे हैं

क्यूँ कर अंगिया में न हो सूरत-ए-जौज़ा पैदा

गोरे गोरे तिरे पिस्ताँ हैं कि मह-पारे हैं

फ़स्ल-ए-गुल आए कली कोई न कोई चटके

आज मुर्ग़ान-ए-सहर बाग़ में चहकारे हैं

इश्क़-ए-अतफ़ाल-ए-चमन में हैं अनादिल बेताब

आशियानों का ये आलम है कि गहवारे हैं

क़त्ल करता है मुझे क्यूँ शब-ए-फ़ुर्क़त ख़ामोश

ऐ मोअज़्ज़िन मद-ए-तकबीर नहीं आरे हैं

एक दिन परचा लगाएँगे नकीरैन ज़रूर

ये फ़रिश्ते नहीं अख़बार के हरकारे हैं

ख़ाल-ए-मुश्कीं ने दिल ऐसा ही जलाया है कि बस

कोएलों पर भी ये धोका है कि अंगारे हैं

ख़्वान-ए-ने'मत से कभी ख़त न उठाएँगे बख़ील

माल खा सकती हैं तक़दीर ने मुँह मारे हैं

न सज़ा-वार-ए-हज़र हूँ न मुबारक है सफ़र

मेरे पल्ले पे न साबित हैं न सय्यारे हैं

रंग गुलज़ार का शबनम सा उड़ा जाता है

रू-ब-रू तेरे हज़ारी नहीं फ़व्वारे हैं

वाह क्या यार के होंटों की मैं तारीफ़ करूँ

जान शीरीं नहीं जिन से वो शकर-पारे हैं

ख़ाना-ए-इश्क़ के मेहमाँ हैं हम और तदूर

दाग़ हैं हम को नसीब और उसे अंगारे हैं

'बहर' अय्याम-ए-जुदाई में न कपड़े फाड़ो

ये समझ लो कि शब-ए-वस्ल के कफ़्फ़ारे हैं

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