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अब मरना है अपने ख़ुशी है जीने से बे-ज़ारी है - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

अब मरना है अपने ख़ुशी है जीने से बे-ज़ारी है

अब मरना है अपने ख़ुशी है जीने से बे-ज़ारी है

इश्क़ में ऐसे हल्के हुए हैं जान बदन को भारी है

शिकवे की चर्चा होती है चुपके ही रहना बेहतर है

दिल को जलाना दिल-सोज़ी है ये ग़म-ए-दुनिया ग़म-ख़्वारी है

किस का वा'दा कौन आता है चैन से सोता होगा वो

रात बहुत आई है ऐ दिल अब नाहक़ बेदारी है

दाव था अपना जब वो हम से चौपड़ सीखने आते थे

अब कुछ चाल नहीं बन आती जीत के बाज़ी हारी है

लुटते देखा ग़श में देखा मरते भी देखा उस ने मुझे

इतना न पूछा कौन है ये इस शख़्स को क्या बीमारी है

हिज्र सितम है कुलफ़त-ओ-ग़म है किस से कहिए हाल अपना

दिन को पड़े रहना मुँह ढाँके रात को गिर्या-ओ-ज़ारी है

उट्ठो कपड़े बदलो चलो क्या बैठे हो 'बहर' उदास उदास

सैर के दिन हैं फूल खिले हैं जोश पे फ़स्ल-ए-बहारी है

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