आज़ुर्दा हो गया वो ख़रीदार बे-सबब
आज़ुर्दा हो गया वो ख़रीदार बे-सबब
दिल बेच कर हुआ मैं गुनहगार बे-सबब
मैं ने तो उस से आँख लड़ाई नहीं कभी
अबरू ने मुझ पे खींची है तलवार बे-सबब
मैं ने बलाएँ भी नहीं लीं ज़ुल्फ़-ए-यार की
मैं हो गया बला-ए-गिरफ़्तार बे-सबब
बोसा कभी लिया नहीं गुल से एज़ार का
क्यूँ दिल के आबले में चुभा ख़ार बे-सबब
क्यूँ उठ खड़े हुए वो भला मैं ने क्या कहा
पहलू में बैठ कर हुए बेज़ार बे-सबब
पूछे तो कोई क्या मिरे तक़्सीर क्या गुनाह
करता है क्यूँ सितम वो सितमगार बे-सबब
इक रात भी हँसा नहीं उस शम्अ'-रू से मैं
आँसू मिरे गले के हुए हार बे-सबब
किस दिन दो-चार नर्गिसी आँखों से मैं हुआ
इस इश्क़ ने किया मुझे बीमार बे-सबब
जो उन की बात है वो लड़कपन के साथ है
इक़रार बे-जहत है तो इंकार बे-सबब
फाहा जगह की दाग़ का शायद सरक गया
ये चश्म-ए-तर नहीं है शरर-बार बे-सबब
दिखला की ये बहार शगूफ़ा फुलाएँगे
ओढ़ा नहीं दो-शाला-ए-गुलनार बे-सबब
निकले थे मुझ पर आज वो तलवार बाँध कर
रहगीर कुश्ता हो गए दो-चार बे-सबब
आमद नहीं किसी की तो क्यूँ जागते हो 'बहर'
रहता है शब को कोई भी बेदार बे-सबब
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