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आज़ुर्दा हो गया वो ख़रीदार बे-सबब - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

आज़ुर्दा हो गया वो ख़रीदार बे-सबब

आज़ुर्दा हो गया वो ख़रीदार बे-सबब

दिल बेच कर हुआ मैं गुनहगार बे-सबब

मैं ने तो उस से आँख लड़ाई नहीं कभी

अबरू ने मुझ पे खींची है तलवार बे-सबब

मैं ने बलाएँ भी नहीं लीं ज़ुल्फ़-ए-यार की

मैं हो गया बला-ए-गिरफ़्तार बे-सबब

बोसा कभी लिया नहीं गुल से एज़ार का

क्यूँ दिल के आबले में चुभा ख़ार बे-सबब

क्यूँ उठ खड़े हुए वो भला मैं ने क्या कहा

पहलू में बैठ कर हुए बेज़ार बे-सबब

पूछे तो कोई क्या मिरे तक़्सीर क्या गुनाह

करता है क्यूँ सितम वो सितमगार बे-सबब

इक रात भी हँसा नहीं उस शम्अ'-रू से मैं

आँसू मिरे गले के हुए हार बे-सबब

किस दिन दो-चार नर्गिसी आँखों से मैं हुआ

इस इश्क़ ने किया मुझे बीमार बे-सबब

जो उन की बात है वो लड़कपन के साथ है

इक़रार बे-जहत है तो इंकार बे-सबब

फाहा जगह की दाग़ का शायद सरक गया

ये चश्म-ए-तर नहीं है शरर-बार बे-सबब

दिखला की ये बहार शगूफ़ा फुलाएँगे

ओढ़ा नहीं दो-शाला-ए-गुलनार बे-सबब

निकले थे मुझ पर आज वो तलवार बाँध कर

रहगीर कुश्ता हो गए दो-चार बे-सबब

आमद नहीं किसी की तो क्यूँ जागते हो 'बहर'

रहता है शब को कोई भी बेदार बे-सबब

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