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आहों से होंगे गुम्बद-ए-हफ़्त-आसमाँ ख़राब - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

आहों से होंगे गुम्बद-ए-हफ़्त-आसमाँ ख़राब

आहों से होंगे गुम्बद-ए-हफ़्त-आसमाँ ख़राब

किस किस मकान को न करेगा धुआँ ख़राब

मर कर भी अपने साथ रहें हर्ज़ा-गर्दियाँ

है मुश्त-ए-ख़ाक सूरत-ए-रेग-ए-रवाँ ख़राब

क़ामत वो है कि जिस से क़यामत है आश्कार

नक़्शा वो है कि जिस से है नक़्श-ए-जहाँ ख़राब

ताब-ओ-तवाँ को जिस्म में यूँ ढूँढती है रूह

जैसे ग़ुबार-ए-राह पस-ए-कारवाँ ख़राब

ना-साज़ हो मिज़ाज तो बातों में क्या मज़ा

बीमार की तरह है ज़बान-ओ-दहाँ ख़राब

ज़ेवर ज़वाल-ए-हुस्न में पहना तो क्या बहार

पत्ते सुनहरे सूरत-ए-बर्ग-ए-ख़िज़ाँ ख़राब

क़तमीर से करूँगा सग-ए-यार का गिला

मरक़द के ग़ार में जो हुईं हड्डियाँ ख़राब

ऐ 'बहर' तुझ को ढूँड फिरे शश-जिहत में हम

तेरा पता कहीं भी है ओ ख़ानुमाँ-ख़राब

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