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इस दश्त की वुसअत में सिमट कर नहीं देखा - शहज़ाद क़मर कविता - Darsaal

इस दश्त की वुसअत में सिमट कर नहीं देखा

इस दश्त की वुसअत में सिमट कर नहीं देखा

इक उम्र चले और पलट कर नहीं देखा

हम अहल-ए-नज़र हो के भी कब अहल-ए-नज़र थे

हालात को ख़ुद से कभी हट कर नहीं देखा

अहबाब की बाँहों का नशा और है लेकिन

तू ने कभी दुश्मन से लिपट कर नहीं देखा

इक दर्द के धागे में पिरोए हैं अज़ल से

इस रिश्ता-ए-मौहूम से कट कर नहीं देखा

या रात के दामन में सितारे ही बहुत थे

या हम ने चराग़ों को उलट कर नहीं देखा

कैसे नज़र आते मिरी आँखों के जज़ीरे

इस बहर-ए-तलब ने कभी घट कर नहीं देखा

'शहज़ाद'-क़मर देख रहा है वही दुनिया

ख़ानों में जहाँ ज़ीस्त ने बट कर नहीं देखा

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In Hindi By Famous Poet Shahzad Qamar. is written by Shahzad Qamar. Complete Poem in Hindi by Shahzad Qamar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.