वो मुझे प्यार से देखे भी तो फिर क्या होगा
मुझ में इतनी भी सकत कब है कि धोका खाऊँ
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सब्त है चेहरों पे चुप बन में अंधेरा हो चुका
शहर का शहर अगर आए भी समझाने को
जब उस की ज़ुल्फ़ में पहला सफ़ेद बाल आया
शायद लोग इसी रौनक़ को गर्मी-ए-महफ़िल कहते हैं
आज तक उस की मोहब्बत का नशा तारी है
कब तक कड़कती धूप में आँखें जलाएँ हम
लगे थे ग़म तुझे किस उम्र में ज़माने के
जैसे मुँह-बंद कली रात के वीराने में
मैं तिरा कुछ भी नहीं हूँ मगर इतना तो बता
यूँ तिरी याद में दिन रात मगन रहता हूँ
मुसाफ़िर हो तो सुन लो राह में सहरा भी आता है
ज़बानें थक चुकीं पत्थर हुए कान