कुछ देखने की दिल में तमन्ना नहीं बाक़ी
क्या अपनी भी ताक़त से सिवा देख लिया है
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शायद लोग इसी रौनक़ को गर्मी-ए-महफ़िल कहते हैं
जिस से दो रोज़ भी खुल कर न मुलाक़ात हुई
दिल-आराम
वो कौन है उसे सूरज कहूँ कि रंग कहूँ
अब तो इंसान की अज़्मत भी कोई चीज़ नहीं
वाक़िआ कुछ भी हो सच कहने में रुस्वाई है
किस लिए वो शहर की दीवार से सर फोड़ता
रौशन भी करोगे कभी तारीकी-ए-शब को
तन्हाई में आ जाती हैं हूरें मिरे घर में
उम्र जितनी भी कटी उस के भरोसे पे कटी
मैं गुल-ए-ख़ुश्क हूँ लम्हे में बिखर सकता हूँ
आँख उठा के मेरी सम्त अहल-ए-नज़र न देख पाए