रूह की आग
रात तक जिस्म को उर्यां रखना
चाँद निकला तो ये सहरा की सुलगती हुई रेत
सर्द हो जाएगी बरसात की शामों की तरह
बर्फ़ हो जाएगा जिस्म
फिर ख़ुनुक-ताब हवा आएगी
तेरी पेशानी को छू जाएगी
और पसीने की ये नन्ही बूँदें
हो के तहलील फ़ज़ाओं में बिखर जाएँगी
रेत के टीलों से टकराएँगी
रेत के टीले हवाओं की नमी चाटेंगे
रेत के टीलों की तिश्ना-दहनी
और भड़क उट्ठेगी
जब हवा दश्त से आगे निकली
पत्ते पत्ते को झुलस जाएगी
पर जहाँ तू है वहाँ
सर्द हो जाएगा ज़र्रा ज़र्रा
बर्फ़ हो जाएगा जिस्म
मगर इक रूह की आग
जिस को बरसात की शामों ने हवा दी बरसों
चाँद की ज़र्द शुआओं से भड़क उट्ठेगी
(479) Peoples Rate This