दिल-ए-फ़सुर्दा उसे क्यूँ गले लगा न लिया
दिल-ए-फ़सुर्दा उसे क्यूँ गले लगा न लिया
क़रीब रह के भी जिस ने तिरा पता न लिया
बस एक लम्हे में क्या कुछ गुज़र गई दिल पर
बहाल होते हुए हम ने इक ज़माना लिया
किसी भी हाल में पहुँचे तो हैं किनारे पर
यही बहुत है कि एहसान-ए-नाख़ुदा न लिया
ख़याल आया रवाना हुए सफ़र के लिए
न हम ने रख़्त ही बाँधा न आब-ओ-दाना लिया
मैं जी रहा हूँ मगर याद-ए-रफ़्तगाँ की तरह
मुझे गए हुए लम्हों ने क्यूँ बुला न लिया
तमाम उम्र हवा फांकते हुए गुज़री
रहे ज़मीं पे मगर ख़ाक का मज़ा न लिया
अज़ल से है वही बे-कैफ़ रौशनी अब तक
गुलों का रंग सितारों ने क्यूँ उड़ा न लिया
जो था अज़ीज़ उसी से गुरेज़ करते रहे
गली गली में फिरे अपना रास्ता न लिया
उमीद शो'ला नहीं आफ़्ताब है 'शहज़ाद'
चराग़ था तो हवाओं ने क्यूँ बुझा न लिया
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