भटकती हैं ज़माने में हवाएँ
भटकती हैं ज़माने में हवाएँ
किसे आवाज़ दें किस को बलाएँ
ये दिल का शहर मुश्किल से बसा था
चलो इस शहर में अब ख़ाक उड़ाएँ
कभी दुनिया पर उस के राज़ खोलें
कभी अपनी भी आगाही न पाएँ
कभी शोर-ए-क़यामत से खुले आँख
कभी पत्ता हिले और चौंक जाएँ
मिरी दुनिया में रहना चाहती हैं
पुरानी सोहबतों की अप्सराएँ
मिरे कानों में बसना चाहती हैं
गए-गुज़रे ज़मानों की सदाएँ
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