या तेरे अलावा भी किसी शय की तलब है
या अपनी मोहब्बत पे भरोसा नहीं हम को
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फिर सफ़र बे-सम्त बे-मंज़िल हुआ
बताऊँ किस तरह अहबाब को आँखें जो ऐसी हैं
तन्हाई की ये कौन सी मंज़िल है रफ़ीक़ो
आसमाँ कुछ भी नहीं अब तेरे करने के लिए
जब भी मिलती है मुझे अजनबी लगती क्यूँ है
मैं सोचता हूँ मगर याद कुछ नहीं आता
चुपके से इधर आ जाओ
तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को
शाम होते ही खुली सड़कों की याद आती है
ये जगह अहल-ए-जुनूँ अब नहीं रहने वाली
एक सियासी नज़्म
आख़िरी साँस