उस को किसी के वास्ते बे-ताब देखते
हम भी कभी ये मंज़र-ए-नायाब देखते
Mohsin Naqvi
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घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
ज़िंदा रहने का ये एहसास
दिल परेशाँ हो मगर आँख में हैरानी न हो
कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें
जब भी मिलती है मुझे अजनबी लगती क्यूँ है
फ़रार
या तेरे अलावा भी किसी शय की तलब है
रात को दिन से मिलाने की हवस थी हम को
आसमाँ कुछ भी नहीं अब तेरे करने के लिए
नज़र जो कोई भी तुझ सा हसीं नहीं आता
मौत
तम्बीह