उम्र का बाक़ी सफ़र करना है इस शर्त के साथ
धूप देखें तो उसे साए से ताबीर करें
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आँधियाँ आती थीं लेकिन कभी ऐसा न हुआ
बे-नाम से इक ख़ौफ़ से दिल क्यूँ है परेशाँ
ग़म की दौलत बड़ी मुश्किल से मिला करती है
जम्अ करते रहे जो अपने को ज़र्रा ज़र्रा
नया उफ़क़
भटक गया कि मंज़िलों का वो सुराग़ पा गया
दिल में रखता है न पलकों पे बिठाता है मुझे
हवा चले वरक़-ए-आरज़ू पलट जाए
कब समाँ देखेंगे हम ज़ख़्मों के भर जाने का
मौत
सफ़र का नश्शा चढ़ा है तो क्यूँ उतर जाए