तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को
कब से पलकों पर उठाए फिर रहा हूँ रात को
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नहीं है मुझ से तअ'ल्लुक़ कोई तो ऐसा क्यूँ
रतजगों का ज़वाल
कहिए तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ
ख़्वाब का दर बंद है
वो कौन था
फ़ैसले की घड़ी
क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
दयार-ए-दिल न रहा बज़्म-ए-दोस्ताँ न रही
मा'बद-ए-ज़ीस्त में बुत की मिसाल जड़े होंगे
अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
वो कौन था वो कहाँ का था क्या हुआ था उसे
आँधियाँ आती थीं लेकिन कभी ऐसा न हुआ