शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है
रिश्ता ही मिरी प्यास का पानी से नहीं है
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नया अमृत
ऐसे हिज्र के मौसम कब कब आते हैं
आँखों में तेरी देख रहा हूँ मैं अपनी शक्ल
कहिए तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ
है आज ये गिला कि अकेला है 'शहरयार'
तुझे भूल गया कभी याद नहीं करता तुझ को
तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को
निस्बत रहे तुम से सदा हज़रत निज़ामुद्दीन-जी
तुझ से मिल कर भी न तन्हाई मिटेगी मेरी
ज़िंदा रहने का ये एहसास
शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को
आरज़ू