मैं सोचता हूँ मगर याद कुछ नहीं आता
कि इख़्तिताम कहाँ ख़्वाब के सफ़र का हुआ
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आहट जो सुनाई दी है हिज्र की शब की है
जागता हूँ मैं एक अकेला दुनिया सोती है
इक सिर्फ़ हमीं मय को आँखों से पिलाते हैं
ये क्या है मोहब्बत में तो ऐसा नहीं होता
कितनी तब्दील हुइ किस लिए तब्दील हुइ
सफ़र का नश्शा चढ़ा है तो क्यूँ उतर जाए
सभी को ग़म है समुंदर के ख़ुश्क होने का
खुले जो आँख कभी दीदनी ये मंज़र हैं
तिरा ख़याल भी तेरी तरह सितमगर है
हम जुदा हो गए आग़ाज़-ए-सफ़र से पहले
आँख की ये एक हसरत थी कि बस पूरी हुई
हँस रहा था मैं बहुत गो वक़्त वो रोने का था