किस किस तरह से मुझ को न रुस्वा किया गया
ग़ैरों का नाम मेरे लहू से लिखा गया
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ख़्वाब
ज़िंदगी जैसी तवक़्क़ो' थी नहीं कुछ कम है
ये क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गए होते
गुलाब टहनी से टूटा ज़मीन पर न गिरा
हर ख़्वाब के मकाँ को मिस्मार कर दिया है
आँखों में तेरी देख रहा हूँ मैं अपनी शक्ल
ज़मीं से ता-ब-फ़लक धुँद की ख़ुदाई है
वो मोड़
मुझ को मिलना है 'वहीद-अख़्तर' से
फ़ज़ा-ए-मय-कदा बे-रंग लग रही है मुझे
तन्हाई की ये कौन सी मंज़िल है रफ़ीक़ो
मोम के जिस्मों वाली इस मख़्लूक़ को रुस्वा मत करना