कहने को तो हर बात कही तेरे मुक़ाबिल
लेकिन वो फ़साना जो मिरे दिल पे रक़म है
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Gulzar
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Faiz Ahmad Faiz
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Jaun Eliya
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Mir Taqi Mir
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अब तो ले दे के यही काम है इन आँखों का
अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो
सैगंधी
रात को दिन से मिलाने की हवस थी हम को
ज़ख़्मों को रफ़ू कर लें दिल शाद करें फिर से
कच्चे रस्तों से
तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को
उम्र का बाक़ी सफ़र करना है इस शर्त के साथ
हर ख़्वाब के मकाँ को मिस्मार कर दिया है
निकला है चाँद शब की पज़ीराई के लिए
काग़ज़ की कश्तियाँ भी बहुत काम आएँगी
खुले जो आँख कभी दीदनी ये मंज़र हैं