इन दिनों मैं भी हूँ कुछ कार-ए-जहाँ में मसरूफ़
बात तुझ में भी नहीं रह गई पहले वाली
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अजीब काम
या मैं सोचूँ कुछ भी न उस के बारे में
कहने को तो हर बात कही तेरे मुक़ाबिल
एक काली नज़्म
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें
मुझ को मिलना है 'वहीद-अख़्तर' से
ख़लीलुर्रहमान आज़मी की याद में
गुम-शुदा
इक सिर्फ़ हमीं मय को आँखों से पिलाते हैं
दिल रिझा है तुझ पे ऐसा बद-गुमाँ होगा नहीं
जो होने वाला है अब उस की फ़िक्र क्या कीजे