एक ही मिट्टी से हम दोनों बने हैं लेकिन
तुझ में और मुझ में मगर फ़ासला यूँ कितना है
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मिरे सूरज आ! मिरे जिस्म पे अपना साया कर
आँख की ये एक हसरत थी कि बस पूरी हुई
देखने के लिए इक चेहरा बहुत होता है
सैगंधी
ज़ख़्मों को रफ़ू कर लें दिल शाद करें फिर से
एक लम्हे से दूसरे लम्हे तक
जुस्तुजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने
मुझ को ले डूबा तिरा शहर में यकता होना
अहद-ए-हाज़िर की दिल-रुबा मख़्लूक़
अक्स को क़ैद कि परछाईं को ज़ंजीर करें
या तेरे अलावा भी किसी शय की तलब है
निकला है चाँद शब की पज़ीराई के लिए