उम्मीद ओ बीम
मैं ने अक्सर इन्हीं आँखों के दरीचे से तुझे
झाँकते देखा है
जब लग़्ज़िश-ए-अन्फ़ास बढ़ी
तुंद-ओ-पुर-शोर सदाओं का हुजूम
नूर-अफ़रोज़ ख़लाओं से हम-आग़ोश हुआ
मैं ने अक्सर इन्हीं आँखों के दरीचे में तुझे
डूबते देखा है
जब तल्ख़ी-ए-एहसास घटी
ख़ामुशी रख़्त-ए-सफ़र बाँध चुकी
तुंद-ओ-पुर-शोर सदाओं का हुजूम
ज़ुल्मत-अंगेज़ ज़मीं-दोज़ गुफाओं का जिगर
चीर के
ऊँघती तन्हाई में तहलील हुआ
मैं ने तू ने इन्हीं आँखों के दरीचे के क़रीब
रौशनी रोते हुए नूर के मीनारों को
अश्क बनते हुए गिरते हुए देखा है
तो क्यूँ
आँधियाँ चलने लगीं
ख़ौफ़ से काँप उठीं बाज़ दरीचों की लवें?
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