साए
उदास शहर की गलियों में रक़्स करते हैं
बलाएँ लेते हैं आवारा-गर्द ख़्वाबों की
दुआएँ देते हैं बिछड़े हुओं को मिलने की
सँवारते हैं ख़म-ए-गैसू-ए-तमन्ना को
पुकारते हैं किसी अजनबी मसीहा को
समेट लेता है जब चाँद अपनी किरनों को
तो दिन के गहरे समुंदर में डूब जाते हैं
यूँही हमेशा तुलू'अ ओ ग़ुरूब होते हैं
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