दवाओं की अलमारियों से सजी इक दुकाँ में
मरीज़ों के अम्बोह में मुज़्महिल सा
इक इंसाँ खड़ा है
जो इक नीली कुबड़ी सी शीशी के सीने पे लिक्खे हुए
एक इक हर्फ़ को ग़ौर से पढ़ रहा है
मगर उस पे तो ''ज़हर'' लिख्खा हुआ है
उस इंसान को क्या मरज़ है
ये कैसी दवा है?
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तेरे सिवा भी कोई मुझे याद आने वाला था
मिरे सूरज आ! मिरे जिस्म पे अपना साया कर
रात जुदाई की रात
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शम-ए-दिल शम-ए-तमन्ना न जला मान भी जा
ख़लीलुर्रहमान आज़मी की याद में
मौत
सफ़र का नश्शा चढ़ा है तो क्यूँ उतर जाए
मुझ को ले डूबा तिरा शहर में यकता होना
तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को
गुम-शुदा
सभी को ग़म है समुंदर के ख़ुश्क होने का