ज़िंदगी ये तिरा एहसान बहुत है मुझ पर
'आज़मी' ज़ीस्त है हर मोड़ पे जो साथ मिरे
उस की यादों में बसर होते हैं दिन रात मिरे
एक एहसान नया कर मुझ पर
ज़िंदगी, मौत से तू मेरी सिफ़ारिश कर दे
मुझ को मिलना है 'वहीद-अख़्तर' से
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चलो तुम को....
सैगंधी
कितनी तब्दील हुइ किस लिए तब्दील हुइ
एक सियासी नज़्म
बे-ताब हैं और इश्क़ का दावा नहीं हम को
अहद-ए-हाज़िर की दिल-रुबा मख़्लूक़
कहिए तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ
शहर-ए-उम्मीद हक़ीक़त में नहीं बन सकता
ज़िंदा रहने का ये एहसास
गर्द को कुदूरतों की धो न पाए हम
शाम होते ही खुली सड़कों की याद आती है