माइल-ब-करम हैं रातें
आँखों से कहो अब माँगें
ख़्वाबों के सिवा जो चाहें
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'नजमा' के लिए एक नज़्म
गर्द को कुदूरतों की धो न पाए हम
आँखों को सब की नींद भी दी ख़्वाब भी दिए
ये इक शजर कि जिस पे न काँटा न फूल है
गुम-शुदा
तेरे वा'दे को कभी झूट नहीं समझूँगा
सभी को ग़म है समुंदर के ख़ुश्क होने का
गुज़रे थे हुसैन इब्न-ए-अली रात इधर से
किस किस तरह से मुझ को न रुस्वा किया गया
एतराफ़
उस को किसी के वास्ते बे-ताब देखते
हर तरफ़ अपने को बिखरा पाओगे