हँसो कि सुर्ख़ ओ गर्म ख़ून फिर सफ़ेद हो गया
हँसो कि नुक़्ता-ए-उमीद फिर ख़ला के दाएरे में आज क़ैद हो गया
हँसो कि दश्त-ए-आरज़ू में थक थका के सब बगूले सो गए
हँसो कि शहर ज़िंदगी का बे-फ़सील हो गया
हँसो कि साया-ए-सलीब फिर तवील हो गया
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वो कौन था
जागता हूँ मैं एक अकेला दुनिया सोती है
ख़जिल चराग़ों से अहल-ए-वफ़ा को होना है
अब जी के बहलने की है एक यही सूरत
चलो तुम को....
ज़बाँ मिली भी तो किस वक़्त बे-ज़बानों को
एक मंज़र
क्यूँ आज उस का ज़िक्र मुझे ख़ुश न कर सका
वो बेवफ़ा है हमेशा ही दिल दुखाता है
ऐसे हिज्र के मौसम कब कब आते हैं
कहिए तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ
मैं अकेला सही मगर कब तक