ज़मीं से ता-ब-फ़लक धुँद की ख़ुदाई है
ज़मीं से ता-ब-फ़लक धुँद की ख़ुदाई है
हवा-ए-शहर-ए-जुनूँ क्या पयाम लाई है
पिया है ज़हर भी आब-ए-हयात भी लेकिन
किसी ने तिश्नगी-ए-जिस्म-ओ-जाँ बुझाई है
ये कोई ज़िद है कि है रस्म-ए-आशिक़ी ही यही
हवा के रुख़ पे जो शम-ए-वफ़ा जलाई है
ये कम नहीं कि तरफ़-दार हैं मिरे कुछ लोग
हुनर की वर्ना यहाँ किस ने दाद पाई है
मुसाफ़िरान-ए-रह-ए-शौक़ और तेज़ क़दम
कि चंद गाम ही अब मंज़िल-ए-जुदाई है
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