तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा देख के ये हैराँ है
तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा देख के ये हैराँ है
कि सारा शहर मिरे ख़्वाब से परेशाँ है
मैं इस सफ़र में किसी मोड़ पर नहीं ठहरा
रहा ख़याल कि वो वादी-ए-ग़ज़ालाँ है
ये एक मैं कि तिरी आरज़ू ही सब कुछ है
वो एक तू कि मिरे साए से गुरेज़ाँ है
तो हाफ़िज़े से तिरा नाम क्यूँ नहीं मिटता
जो याद रखना है मुश्किल भुलाना आसाँ है
मैं उस किताब के किस बाब को पढ़ूँ पहले
विसाल जिस का है मज़मूँ फ़िराक़ उनवाँ है
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