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खुले जो आँख कभी दीदनी ये मंज़र हैं - शहरयार कविता - Darsaal

खुले जो आँख कभी दीदनी ये मंज़र हैं

खुले जो आँख कभी दीदनी ये मंज़र हैं

समुंदरों के किनारों पे रेत के घर हैं

न कोई खिड़की न दरवाज़ा वापसी के लिए

मकान-ए-ख़्वाब में जाने के सैकड़ों दर हैं

गुलाब टहनी से टूटा ज़मीन पर न गिरा

करिश्मे तेज़ हवा के समझ से बाहर हैं

कोई बड़ा है न छोटा सराब सब का है

सभी हैं प्यास के मारे सभी बराबर हैं

हुसैन-इब्न-ए-अली कर्बला को जाते हैं

मगर ये लोग अभी तक घरों के अंदर हैं

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In Hindi By Famous Poet Shahryar. is written by Shahryar. Complete Poem in Hindi by Shahryar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.