फ़क़त ज़मान ओ मकाँ में ज़रा सा फ़र्क़ आया
जो एक मसअला-ए-दर्द था अभी तक है
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इस सोच में ही मरहला-ए-शब गुज़र गया
वो एक लम्हा-ए-रफ़्ता भी क्या बुला लाया
हुक्मराँ जब से हुईं बस्ती पे अफ़्वाहें वहाँ
ऐसा हो कि ना-मौऊद हो
कार-ए-बेहूदा
कार-ए-जहाँ दराज़ है
मुझे तस्लीम बे-चून-ओ-चुरा तू हक़-ब-जानिब था
मिरे अलावा सभी लोग अब ये मानते हैं
किताब गुमराह कर रही है
अभी मैं ये सोच ही रहा था
ख़ला सा ठहरा हुआ है ये चार-सू कैसा
पतंग उड़ाने से पहले