आज जिस तनाज़ुर में
काएनात को देखा
हर तरह मुकम्मल थी
पहले इतनी शिद्दत से
कब ख़याल आया था
इस क़दर अकेला हूँ
Ahmad Faraz
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लौह-ए-अय्याम
तज्ज़िया
नदी थी कश्तियाँ थीं चाँदनी थी झरना था
कार-ए-जहाँ दराज़ है
फ़ज़ा होती ग़ुबार-आलूदा सूरज डूबता होता
अभी मैं ये सोच ही रहा था
ख़ला सा ठहरा हुआ है ये चार-सू कैसा
तो क्या तड़प न थी अब के मिरे पुकारे में
मैं नहीं रोता हूँ अब ये आँख रोती है मुझे
हुक्मराँ जब से हुईं बस्ती पे अफ़्वाहें वहाँ
बदल जाएगा सब कुछ ये तमाशा भी नहीं होगा
तुम अपनी सब्ज़ आँखें बंद कर लो