मैं मुँह भर क़हक़हे पे क़हक़हे
जो यूँ लगाने की मशक़्क़त
अज़-सहर ता-शाम करता हूँ दयानत से
तो मज़दूरी भी वाजिब सी मिले कोई
बहुत दिन से मिरी आँखें
कभी भर भर नहीं रोईं
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हुक्मराँ जब से हुईं बस्ती पे अफ़्वाहें वहाँ
कार-ए-जहाँ दराज़ है
मुझे तस्लीम बे-चून-ओ-चुरा तू हक़-ब-जानिब था
फ़क़त ज़मान ओ मकाँ में ज़रा सा फ़र्क़ आया
हुवल-इश्क़
महसूर था
कार-ए-बेहूदा
रह-ए-वफ़ा में रहे ये निशान-ए-ख़ातिर बस
ग़ुबार-ए-दर्द में राह-ए-नजात ऐसा ही
ब-राह-ए-रास्त नहीं फिर भी राब्ता सा है
शिकस्त
ऐसा हो कि ना-मौऊद हो