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मुझे तस्लीम बे-चून-ओ-चुरा तू हक़-ब-जानिब था - शहराम सर्मदी कविता - Darsaal

मुझे तस्लीम बे-चून-ओ-चुरा तू हक़-ब-जानिब था

मुझे तस्लीम बे-चून-ओ-चुरा तू हक़-ब-जानिब था

मिरे अन्फ़ास पर लेकिन अजब पिंदार ग़ालिब था

वगर्ना जो हुआ उस से सिवाए रंज क्या हासिल

मगर हाँ मस्लहत की रौ से देखें तो मुनासिब था

मैं तेरे ब'अद जिस से भी मिला तीखा रखा लहजा

कि इस बे-लौस चाहत के एवज़ इतना तो वाजिब था

मैं कुछ पूछूँ भी तो अक्सर जवाबन कुछ नहीं कहता

गुज़िश्ता एक अर्से से जो बस मुझ से मुख़ातिब था

मैं उम्र-ए-रफ़्ता की बाज़ी से इतना ही समझता हूँ

शिकस्त ओ फ़तह दो हर्फ़-ए-इज़ाफ़ी खेल जालिब था

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In Hindi By Famous Poet Shahram Sarmadi. is written by Shahram Sarmadi. Complete Poem in Hindi by Shahram Sarmadi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.