ख़ला सा ठहरा हुआ है ये चार-सू कैसा
ख़ला सा ठहरा हुआ है ये चार-सू कैसा
उजाड़ हो गया इक शहर-ए-रंग-ओ-बू कैसा
तमाम हल्क़ा-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल हैराँ है
सवाद-ए-चश्म में आया ये माह-रू कैसा
कभी जो फ़ुर्सत-ए-यक-लम्हा भी मिले तो देख
कि दश्त-ए-याद में बिखरा पड़ा है तू कैसा
अगरचे शोरा ही शोरा सब इलाक़ा-ए-दिल
तुझे रक्खा है मगर सब्ज़ ओ पुर-नुमू कैसा
सरा-ए-दिल में कई दिन से शाम होते ही
धुआँ सा फैलने लगता है कू-ब-कू कैसा
ज़रा जो सोचें तो ये मसअला भी हल हो जाए
कि होना चाहिए अब रंग-ए-आरज़ू कैसा
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