ब-राह-ए-रास्त नहीं फिर भी राब्ता सा है
ब-राह-ए-रास्त नहीं फिर भी राब्ता सा है
वो जैसे याद-ए-मज़ाफ़ात में छुपा सा है
कभी तलाश किया तो वहीं मिला है वो
नफ़स की आमद-ओ-शुद में जहाँ ख़ला सा है
ये तारे किस लिए आँखें बिछाए बैठे हैं
हमें तो जागते रहने का आरिज़ा सा है
ये काएनात अगर वैसी हो तो क्या होगा
हमारे ज़ेहन में ख़ाका जो इक बना सा है
ज़मीं मदार पे रक़्साँ है सुब्ह ओ शाम मुदाम
कुरे के चार तरफ़ इक मुहासरा सा है
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